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''भगवान्'' और ''मनुष्य''
उन लोगों के लिए जो एक शब्द से डरते हैं । भगवान् से हमारा मतलब यह है : समस्त ज्ञान जो हमें प्राप्त करना है, समस्त शक्ति जो हमें पानी है, समस्त प्रेम जो हमें बनना है, समस्त पूर्णता जो हमें प्राप्त करनी है, समस्त सामंजस्यपूर्ण और प्रगतिशील संतुलन जो हमें प्रकाश और आनन्द में अभिव्यक्त करना है, समस्त नूतन और अज्ञात भव्यताएं जिन्हें चरितार्थ करना है । ७ सितम्बर, १९५२ *
भगवान् वास्तव में वही हैं जो तुम अपनी गभीरतम अभीप्सा में 'उनसे' आशा करते हो ।
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भगवान् क्या हैं ?
भगवान् वह पूर्णता हैं जिसे पाने के लिए हमें अभीप्सा करनी चाहिये । ८ नवम्बर, १९६९
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भगवान् वह पूर्णता हैं जिसकी ओर हम गति कर रहे हैं । और अगर तुम चाहो तो मैं तुम्हें बड़ी खुशी से 'उनकी' ओर ले चलूंगी । भरोसा रखो । १७ दिसम्बर, १९६९
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हर सत्ता अपने अन्दर 'दिव्य निवासी' को लिये रहती है और यद्यपि
१८ समस्त विश्व में कोई सत्ता इतनी दुर्बल नहीं जितना मनुष्य, पर कोई उसके समान दिव्य भी नहीं है । २ अक्तूबर, १९५१
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प्रत्येक प्राणी एक नित नया होनेवाला भजन है जिसे विश्व भगवान् की अचिन्त्य भव्यता और गरिमा को अर्पित करता है । २१ नवम्बर, १९५४
* 'सत्य' की दृष्टि से हम सभी दिव्य हैं पर हम इसे मुश्किल से ही जानते हैं । और हमारे अन्दर जो चीज अपने- आपको दिव्य के रूप में नहीं जानती ठीक वही है जिसे हम अपना ''स्व'' कहते हैं ।
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हमारा मूल्य अपने-आपका अतिक्रमण करने के प्रयास के परिमाण में है और अपने-आपका अतिक्रमण करने का अर्थ है भगवान् को पाना । मानव की सामान्य अवस्था असह्य है । हम सचमुच जाननेवाले ज्ञान के लिए, सचमुच शक्तिशाली शक्ति के लिए, सचमुच प्रेम करनेवाले प्रेम के लिए अभीप्सा करते हैं । *
मानव स्वभाव के उथलेपन से रुद्ध हुए हम अभीप्सा करते हैं ऐसे ज्ञान के लिए जो जानता है ऐसी शक्ति के लिए जो कर सकती है, ऐसे प्रेम के लिए जो सचमुच प्रेम करता है । २४ अप्रैल, १९६४
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मैं कौन हूं ?
अनेक छद्मवेशों में भगवान् । १९६६ १९ |